January 31, 2012

मैं और मेरा भगवान

मेरी प्रार्थना के दो हिस्से कर दो ।

पहला  ।

यह इस मूर्ति का मंदिर है ,
विशाल , संगमरमरइय स्तंभों वाला ।
इसके गुबंद पर गुंजित हैं , पीतल की घंटी , ऋचा
प्रार्थनाएं , याचनाएं , विनतियाँ।
मुझे महसूस होती हैं ,
तान कर रखी , कपूर की गंध ,
लौ की चमक , ललाट के सिन्दूर की महक ।


यहाँ पत्थर ठंडे हैं , उदासीन से ।
विशाल नयनों वाले , सुरीली बांसुरी वाले ,
श्रृंगार से सुशोभित ,
श्रद्धा से अलंकृत ,
पत्थर ।

यह ललकारते हैं , मेरे भीतर के
अपराजित को ,
कचोटते हैं मेरी हीनता को ,
उपहार में मिली हीनता ।

चौखट पर रखे मस्तक ,
निष्ठा और विनम्रता ।
मैं विस्मित हूँ ,
स्वयं  की भावना की अक्षमता पर ,
सामाजिक नपुसंकता पर ,
शायद इसलिए घृणित हूँ ।

यह पत्थरों का मंदिर है ,
इस मंदिर में मैं नास्तिक हूँ ।

दूसरा ।

यह इमारत है ,
काली ईटों से बनी , धुंए , राख से भरी।
यहाँ मशीनें लोहा  बनाती हैं ,
यन्त्र , नियंत्रित ,
मशीनें ।

इस घुटन भरी हवा की दिशा ,
मेहनत से निश्चित है ,
पारितोष से निर्मित है ।
हर कारीगर पुजारी है ,
मानव सभ्यता का ,
स्वयं के गुणों का ।

मैं विस्मित हूँ ।
तपती सतह के सौंदर्य की परिभाषा पर ।
जैसे स्वार्थ हो ,
सोने - से लोहे की विडम्बना का स्वार्थ ,
आत्मविश्वास का स्वार्थ ।

बहते लावे में मेरा अभिमान है ,
अनिश्चित सा , अज्ञानी ,
लालिमा को समर्पित ,
इच्छाशक्ति का , दृढ़ता का ,
विनम्र सा अभिमान ।

नतमस्तक हूँ ,
लावे की नैतिकता पर ,
आत्मा की इस विराट छवि पर ।

इस इमारत में मैं आस्तिक हूँ ।