August 27, 2010

तेरह दिन

लोगों ने कहा , पिताजी नहीं रहे |
और फिर जैसे मौसम चला गया ,
सूखी , सर्द , कांपती हवा ,कुछ कहती रही पत्तों से |
आँगन की धूप को नज़र सी लग गयी |

दो दिन , चार दिन ,माँ बहुत रोई |
आँगन में बैठी औरतें और बरामदे में बैठे आदमी ,
जाने क्या फुसफुसाते रहे |
ज़मीन ,जायदाद ,कच्ची उम्र ,
गूंजे हुए शब्दों का घना सन्नाटा |

आठ दिन , नौ दिन |
सूनापन ,खाली होता घर ,धीरे धीरे कम होती सांत्वना |
माँ  की सिसकी सूख गयी है |
" कैसी निष्ठुर है तू ? रोती क्यों नहीं ?"
" जाने कैसी लड़की है ! "
संसार अभी भी धुरी पर है|

 ग्यारह दिन , बारह दिन , समय भी तो नहीं रुका |
अब कोई नहीं आएगा , सांझ को दरवाज़े पर मुझे आवाज़ देने ,
छोटी  बातें सिखाने , प्यार से पुकारने , गोद में उठाने |
तेरह दिन,
मैं नहीं रोउंगी |

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