दुबली देह पर फंसी सूती साडी में ,
चूल्हे पर रोटियां बनाती हूँ तो ,
कभी- कभी याद आता है ,
कि नर्म , सुन्दर हाथ होते तो ,
पास बैठाकर , उन्ही से खिलाती |
संध्या जब अपनी सीमा छूती है ,
तब देहरी पर दिया लेकर प्रतीक्षा करती हूँ तो ,
थोड़ा गुनगुना लेती हूँ |
मैं गा नहीं सकती |
शादी की पुरानी बनारसी निकालकर ,
थोड़े से गहनों में सजना चाहूँ ,
तो अजीब लगता है |
मैं सज संवर कर, रिझा नहीं सकती |
जब देश दुनिया की बातें करते हो तो
तुम्हारे पैर दबाते हुए ,
मुझे कोई मजाक क्यूँ नहीं सूझता |
मैं बातें बना नहीं सकती |
केवल सुन सकती हूँ , पूरी तन्मयता से ,
एक-एक शब्द को |
थके हुए सर को , जली हुई ,रूखी ही सही ,
पर अपनी उँगलियों से , दबा सकती हूँ |
नर्म सूती की गोद में लिटाकर ,
एकाध लोरी शायद याद आ जाए |
देहरी पर की गयी प्रतीक्षा,
मेरे दिन भर की नीरसता का एक मात्र आकर्षण है ,
स्वयं की पूजा है |
केवल इतना कर सकती हूँ |
.
ReplyDeleteभावुक कर देने वाली रचना।
.
सचमुच बहुत ही भावुक रचना........
ReplyDeleteI wonder where you get the ideas from???
ReplyDeleteAmazing peace of work....really commendable.
... sundar rachanaa ... badhaai !!!
ReplyDelete