साठ दिन की सज़ा और है ,
फिर अंत , मोक्ष का भ्रम |
इस सीलन भरे कमरे के भाग्य का
क्षणिक सुख है ,
सांस का , हलचल का , जीवन और अंत का |
दूर कहीं हँसी है ,
सन्नाटे की संगिनी |
नमकीन हवा बहाकर ले आती है ,
भोर के साथ |
दो लहरों के खिलवाड़ की हँसी ,
सफ़ेद झाग और रेत के क्षणिक मिलन की हँसी |
स्थायी होना ही संपूर्ण होना नहीं होता |
ज्वार की चहलकदमी पर चट्टानों की रोक है |
वह एक प्रहार है ,
पानी की चमक पर , ठोस शिला का ,
पत्थर के गर्व पर पानी की तरलता का |
"प्रत्येक दिन अलग स्वप्न में देखता हूँ तुम्हें |
तट पर गीली रेत में धंसे पैरों के साथ |
किनारे की काली मिटटी में सीप गड़े हैं |
तुम्हारे ज़ेवर हैं , छोर पर बिखरे हैं |
समेटकर बाँध लेता हूँ ,
धुंधले पानी को छाती से लगाकर ,
दीर्घ निः श्वास में विलीन हो जाता हूँ |
काले आकाश के तले सब रंगीन हैं , विस्तीर्ण है |
तुम विशाल हो , अदभुत हो ,
मैं यहाँ खोना चाहता हूँ , तुमको स्वयं में |
मेरी लालसा का यही चरम है , यहाँ किनारे पर |"
सुबह ले आती है , चारदीवारें और एक रोशनदान |
नमकीन हवा में एक भीनी स्मृति बह रही है ,
साठ दिनों की स्मृति |
"इतने दिनों बाद आज सूरज को देखा है |
सलाखों के बाहर वही गंध है , तुम्हारी |
सामने रस्सी है ,
बरामदे के काले पत्थरों में रेत है ,
कहीं कहीं |
उंचाई पर खड़ा हूँ ,
तुम्हें नहीं देखा सकता |
श्रुति है केवल , विस्मित हूँ |
नहीं मैं मरना नहीं चाहता ,
मुझे प्रेम है तुमसे , तुम्हारी उस रेतीली देह से |"
गर्दन पर जकड़न सी हुई |
"मैंने समुद्र को देखा है ,
तुमने मुझे नहीं देखा |"
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