March 05, 2012

विदा

मेरी गोद सूनी थी ।
सूखी पत्तियों में लिखता रहा ,
 कुछ नया- पुराना सा ,
गीले कालीन से धूल उड़ती रही ।

फूलों के झड़ने का समय हो चला है ।
यामिनी का पारिजात ।
अचानक श्रृंगारित हूँ ,
इस बेला में ,
सफ़ेद नारंगी सुरभित गोद से ।


मैं प्रतीक्षारत था।
साबरमती , तुम कहाँ थी साबरमती ?

इस विहीन में ,
ठंडी रेत को तन से लगाये ,
कल लौट जाऊंगा ।
नहीं देख सकता ,
हवा के साथ की ये अठखेलियाँ ।
छेड़ छेड़कर दूर होती मुस्कान ।

तुम्हारे पीछे खड़ी स्त्री का प्रेम मिला था मुझे ।
एकाएक पूछती है ,
"मुझे छोड़कर
किसी को पा सकोगे ?"


January 31, 2012

मैं और मेरा भगवान

मेरी प्रार्थना के दो हिस्से कर दो ।

पहला  ।

यह इस मूर्ति का मंदिर है ,
विशाल , संगमरमरइय स्तंभों वाला ।
इसके गुबंद पर गुंजित हैं , पीतल की घंटी , ऋचा
प्रार्थनाएं , याचनाएं , विनतियाँ।
मुझे महसूस होती हैं ,
तान कर रखी , कपूर की गंध ,
लौ की चमक , ललाट के सिन्दूर की महक ।


यहाँ पत्थर ठंडे हैं , उदासीन से ।
विशाल नयनों वाले , सुरीली बांसुरी वाले ,
श्रृंगार से सुशोभित ,
श्रद्धा से अलंकृत ,
पत्थर ।

यह ललकारते हैं , मेरे भीतर के
अपराजित को ,
कचोटते हैं मेरी हीनता को ,
उपहार में मिली हीनता ।

चौखट पर रखे मस्तक ,
निष्ठा और विनम्रता ।
मैं विस्मित हूँ ,
स्वयं  की भावना की अक्षमता पर ,
सामाजिक नपुसंकता पर ,
शायद इसलिए घृणित हूँ ।

यह पत्थरों का मंदिर है ,
इस मंदिर में मैं नास्तिक हूँ ।

दूसरा ।

यह इमारत है ,
काली ईटों से बनी , धुंए , राख से भरी।
यहाँ मशीनें लोहा  बनाती हैं ,
यन्त्र , नियंत्रित ,
मशीनें ।

इस घुटन भरी हवा की दिशा ,
मेहनत से निश्चित है ,
पारितोष से निर्मित है ।
हर कारीगर पुजारी है ,
मानव सभ्यता का ,
स्वयं के गुणों का ।

मैं विस्मित हूँ ।
तपती सतह के सौंदर्य की परिभाषा पर ।
जैसे स्वार्थ हो ,
सोने - से लोहे की विडम्बना का स्वार्थ ,
आत्मविश्वास का स्वार्थ ।

बहते लावे में मेरा अभिमान है ,
अनिश्चित सा , अज्ञानी ,
लालिमा को समर्पित ,
इच्छाशक्ति का , दृढ़ता का ,
विनम्र सा अभिमान ।

नतमस्तक हूँ ,
लावे की नैतिकता पर ,
आत्मा की इस विराट छवि पर ।

इस इमारत में मैं आस्तिक हूँ ।







August 16, 2011

प्रिय ______ , तुम्हारे लिए, तुम जहाँ भी मिलो

     
यह  प्रेम पत्र है,
_____ के लिए , वह मुझे जहाँ भी मिले |


" मेरी मृगतृष्णा सी ,
पानी में घुले कांच से बनी ,
 मेरे स्वयं के उत्साह की परछाई |

तुम जिस दिन मिलोगी ,
कुछ दूर खड़ी,
सड़क के उस पार |
बालों में हाथ उलझाए ,
मुस्कुराओगी  , राधिका सी मुस्कराहट|
 भीड़ के शोर में तब संगीत होगा ,
मद्धिम पर स्पष्ट ,
उठता सा |

 मैं समीप जाकर तुम्हारा हाथ थामूँगा |
  मेरी आतुरता पर हँसोगी,
 राधिका सी हंसी |

 घास पर बैठे हुए ,
तुम पत्तों से खेलना ,
 मैं विस्मृति में निहारूंगा |
अपने भगवान् को धन्यवाद दूंगा ,
 मैं भाग्यशाली  हूँ |

 हम हमेशा साथ रहेंगे |


 तुम्हारा,
__________   "




July 11, 2011

फाँसी

साठ दिन की सज़ा और है ,
फिर अंत , मोक्ष का भ्रम |
इस सीलन भरे कमरे के भाग्य का
 क्षणिक सुख है ,
सांस का , हलचल का , जीवन और अंत का |

दूर कहीं हँसी  है ,
सन्नाटे की संगिनी |
नमकीन हवा बहाकर ले आती है ,
भोर के साथ |
दो लहरों के खिलवाड़ की हँसी  ,
सफ़ेद झाग और रेत के क्षणिक मिलन की हँसी  |
स्थायी होना ही संपूर्ण होना नहीं होता |
ज्वार की चहलकदमी पर चट्टानों की रोक है |
वह एक प्रहार है ,
पानी की चमक पर , ठोस शिला  का ,
पत्थर के गर्व पर पानी की तरलता का |

"प्रत्येक दिन अलग स्वप्न में देखता हूँ तुम्हें |
तट पर गीली रेत में धंसे पैरों के साथ |
किनारे की काली मिटटी में सीप गड़े हैं |
तुम्हारे ज़ेवर हैं , छोर पर बिखरे हैं |
समेटकर बाँध लेता हूँ ,
धुंधले पानी को छाती से लगाकर ,
दीर्घ निः श्वास में विलीन हो जाता हूँ |
काले आकाश के तले सब रंगीन हैं , विस्तीर्ण है |
तुम विशाल हो , अदभुत हो ,
मैं यहाँ खोना चाहता हूँ , तुमको स्वयं में |
मेरी लालसा का यही चरम है , यहाँ किनारे पर |"

सुबह ले आती है , चारदीवारें और एक रोशनदान |
नमकीन हवा में एक भीनी स्मृति बह रही है ,
साठ दिनों की स्मृति |


"इतने दिनों बाद आज सूरज को देखा है |
सलाखों के बाहर वही गंध है , तुम्हारी |
सामने रस्सी है ,
बरामदे के काले पत्थरों में रेत है ,
कहीं कहीं |
उंचाई पर खड़ा हूँ ,
तुम्हें नहीं देखा सकता |
श्रुति है केवल , विस्मित हूँ |
नहीं मैं मरना नहीं चाहता ,
मुझे प्रेम है तुमसे , तुम्हारी उस रेतीली देह से |"

गर्दन पर जकड़न सी हुई |
"मैंने समुद्र को देखा है ,
तुमने मुझे नहीं देखा |"

March 23, 2011

योद्धा

गर्वित सीना ,
आवरण और कवच
सागर और रेत की गर्माहट में
सीमान्त की रेखा |

ये युद्ध है ,
तुम्हारा उत्तरदायित्व है, लड़ना
और जीतना |
यह तुम्हारी नियति है ,
यह तुम्हारा धर्म है |

आग्रह नहीं था किसीका ,
न ही विकल्प था |
बस परिपक्वता का उपहार था ,
प्रतिष्ठा थी संदूक में बंद ,
सीमा के पार |

अब निभाओ उसे ,
तलवार उठाओ ,
जंग लगी ढाल संभालो ,
कवच से ढकी देह को उद्दत करो
और जाओ वहां ,
जहाँ की भूमि में वासना है , लालसा है |

बहते रक्त में बलिदान ढूँढो ,
रणभेरी के शोर में विजय ढूँढो |
लाल तिलक की गरिमा को सार्थक करो ,
क्योंकि  पराक्रम की परिभाषा तो किसी ने नहीं लिखी |

यहाँ कोई पार्थ नहीं , कोई अर्जुन नहीं है |
यहाँ न न्याय है न सत्य |
यहाँ बस युद्ध है , शौर्य है  ,पौरुष है |

वीर बनो , बलिदान मांगो |
तुम योद्धा हो ,
जाओ लड़ो |

January 31, 2011

नर्मदा

चिकने सफ़ेद पत्थरों की नींव पर,
पारदर्शी चादर में लिपटे रेत कण |

सूर्योदय से सूर्यास्त की गोद है ,
बहते संगीत से मल्लाह के शोर तक ,
किनारे बैठे एकाकी की साथी है |

सुबह के पानी में उठते हुए धुंए में ,
मंदिर की धूप की सुगंध है |

फूलों के पत्तल से, राख की ढेर तक ,
पानी में खेलते बच्चों से ,
घाट की कच्ची सीढ़ियों पर पड़ी
नाव की जीर्णता तक |

एक युग की किताब है |
जिज्ञासा है , पिपासा है |
वह अंत है  , वह अंतहीन है |

सुन्दर है , मेरी है |
वह नर्मदा है |



November 16, 2010

केवल इतना

दुबली देह पर फंसी सूती साडी में ,
चूल्हे पर रोटियां बनाती  हूँ तो ,
कभी- कभी याद आता है ,
कि नर्म , सुन्दर हाथ  होते तो ,
पास बैठाकर ,  उन्ही से  खिलाती |

संध्या जब अपनी सीमा छूती है ,
तब देहरी पर दिया लेकर प्रतीक्षा करती हूँ तो ,
थोड़ा गुनगुना लेती हूँ |
मैं गा नहीं सकती |

शादी की पुरानी बनारसी निकालकर ,
थोड़े से गहनों में सजना चाहूँ ,
तो अजीब लगता है |
मैं सज संवर कर, रिझा नहीं सकती |

जब देश दुनिया की बातें करते  हो तो
तुम्हारे पैर दबाते हुए ,
मुझे कोई मजाक क्यूँ नहीं सूझता |
मैं बातें बना नहीं सकती |

केवल सुन सकती हूँ , पूरी तन्मयता से ,
एक-एक शब्द को |
थके हुए सर को , जली हुई ,रूखी ही सही ,
पर अपनी उँगलियों से , दबा सकती हूँ |
नर्म सूती की गोद में लिटाकर ,
एकाध लोरी शायद याद आ जाए |
देहरी पर की गयी प्रतीक्षा,
मेरे दिन भर की नीरसता का एक मात्र आकर्षण है ,
स्वयं की पूजा है |

केवल इतना कर सकती हूँ |