November 16, 2010

केवल इतना

दुबली देह पर फंसी सूती साडी में ,
चूल्हे पर रोटियां बनाती  हूँ तो ,
कभी- कभी याद आता है ,
कि नर्म , सुन्दर हाथ  होते तो ,
पास बैठाकर ,  उन्ही से  खिलाती |

संध्या जब अपनी सीमा छूती है ,
तब देहरी पर दिया लेकर प्रतीक्षा करती हूँ तो ,
थोड़ा गुनगुना लेती हूँ |
मैं गा नहीं सकती |

शादी की पुरानी बनारसी निकालकर ,
थोड़े से गहनों में सजना चाहूँ ,
तो अजीब लगता है |
मैं सज संवर कर, रिझा नहीं सकती |

जब देश दुनिया की बातें करते  हो तो
तुम्हारे पैर दबाते हुए ,
मुझे कोई मजाक क्यूँ नहीं सूझता |
मैं बातें बना नहीं सकती |

केवल सुन सकती हूँ , पूरी तन्मयता से ,
एक-एक शब्द को |
थके हुए सर को , जली हुई ,रूखी ही सही ,
पर अपनी उँगलियों से , दबा सकती हूँ |
नर्म सूती की गोद में लिटाकर ,
एकाध लोरी शायद याद आ जाए |
देहरी पर की गयी प्रतीक्षा,
मेरे दिन भर की नीरसता का एक मात्र आकर्षण है ,
स्वयं की पूजा है |

केवल इतना कर सकती हूँ |

October 09, 2010

यात्रा

मन के पाट पर स्मित रेखाएं ,
आधी अधूरी बातें ,
अप्रत्याशित वादों की
स्याह गहराई ,
मुरझा तो गई , पर
जीवित है,मंद मंद सी टीस में |

इस  क्षितिज से उस क्षितिज तक ,
एक संकरी पगडण्डी पर ,
अपेक्षाओं के जाल हैं ,
आशा के तिनके हैं ,
तर्क और विवेक से लड़ते हुए |

उस पर छोटे बड़े क़दमों से चलना है |
रोज की दूरी ,
अकेले तय करने के निश्चय को चुनौती देती है |
रेत के पदचिन्ह हैं ,
भावना की हवा में नहीं टिकेंगे,
मेरे संघर्ष के परिणाम की तरह |

संवेदना में मिथ्या है |

मेरी यात्रा तुमसे दूर ,
बहुत लम्बी है , बहुत कठिन है |

September 23, 2010

कहानी

एक कहानी ,
खाली पन्ने , चंद शब्द,
बिखरी स्याही और सूनी कलम |

पुरानी  यादें झाँक रही हैं ,
अकेली खिड़की से ,
असंख्य विचारों की श्रंखला,
प्रतीक्षा में खड़ी है |

क्या लिखूं ,
विस्तृत दृष्टिकोण के असमंजस ,
गंभीर,चंचल ,बचपन ,सुन्दरता और भय |
सुखद स्मृतियाँ या दुखी सा दर्पण |
अनछुई भावनाओं की पेटी
खोलूं या नहीं |

लिखूं की एकांत में भी रस है ,
अकेली सड़क हूँ , साथ चलती हूँ |
की रात सुन्दर है ,समेटती है मुझे अपने विहान में |
की संगीत की लय में मन की जिज्ञासा है,
धीमी ,मद्धिम , मौन |

बारिश की बूँद को चेहरे की आस या ,
घडी के रिक्त स्थान को क्षणिक मिलन की |

उनके बारे में लिखूं ,
जो अपरिचित सुख के मित्र और गहन विचार के साथी हैं |
कुछ दिन की मुस्कान , रौशनी भरे स्वप्न देकर
धूमिल हो गए जो ,
या जीवन की परतों को
हल्क़े हल्क़े स्पर्श से सरल करते हैं , आज भी |

एक कहानी , अर्थ और परिभाषाएं|
विकल्पों की उलझन, खाली पन्ना ,
और चंद शब्द | 

August 27, 2010

तेरह दिन

लोगों ने कहा , पिताजी नहीं रहे |
और फिर जैसे मौसम चला गया ,
सूखी , सर्द , कांपती हवा ,कुछ कहती रही पत्तों से |
आँगन की धूप को नज़र सी लग गयी |

दो दिन , चार दिन ,माँ बहुत रोई |
आँगन में बैठी औरतें और बरामदे में बैठे आदमी ,
जाने क्या फुसफुसाते रहे |
ज़मीन ,जायदाद ,कच्ची उम्र ,
गूंजे हुए शब्दों का घना सन्नाटा |

आठ दिन , नौ दिन |
सूनापन ,खाली होता घर ,धीरे धीरे कम होती सांत्वना |
माँ  की सिसकी सूख गयी है |
" कैसी निष्ठुर है तू ? रोती क्यों नहीं ?"
" जाने कैसी लड़की है ! "
संसार अभी भी धुरी पर है|

 ग्यारह दिन , बारह दिन , समय भी तो नहीं रुका |
अब कोई नहीं आएगा , सांझ को दरवाज़े पर मुझे आवाज़ देने ,
छोटी  बातें सिखाने , प्यार से पुकारने , गोद में उठाने |
तेरह दिन,
मैं नहीं रोउंगी |

July 25, 2010

तुम

तुम ,
अभय , स्थिर , गहन |
समुद्र में द्वीप से ,
स्वयं में पूर्ण |

मैं ,
विहीन , निश्चल , जिज्ञासा से भरी |
मर्यादा की छाँव में पली |
उस पक्षी की तरह,
जिसका आकाश सीमित है
उस द्वीप तक ,
तुम तक |

जब तक साथ हूँ
निश्चित हूँ , उस ढाँचे की कला में ,
जो तुमने बनाया है
मेरे लिए ,
अपने धर्म से , या शायद प्रेम से |

"स्व" के कितने ही पर्याय जान लूँ ,
अलग नहीं हो सकती ,
तुम्हारे अस्तित्व से |

तुम ,
विराट , साहसी , असीम |

मैं ,
लज्जित , निरीह , तुच्छ |

July 18, 2010

कुर्सी के पीछे बैठा लड़का

कक्षा में बैठी छात्रा ,
और कुछ कहती से एक आकृति |
खिल-खिलाहट , चहकना ,हंसी |
सीखने का प्रयत्न करना ,रुकना ,
एक अजीब से उत्साह को देखना |

और कुर्सी के पीछे बैठा वह लड़का|
हँसता , अपने आप में निर्मग्न ,
उदासीन विषय से कुछ दूर ,
वह विचारों से बातें करता हुआ |
ढूँढने के प्रयत्न में ,उसे जो
अथाह समुद्र के बीच है ,
जो जीवन के सच का पर्याय है ,
जो चंचल है, स्वच्छ  है , प्रेम है |

सोचती छात्र की बाहर आ सकूँ ,
इस सोच से , इस अंधी बनावट से
और देख सकूँ उस रेखा के पार ,
जहाँ रौशनी है ,मद्धिम सी राह पर चलती |
और फिर लिखने लग जाती वह ,
कागज़ और कलम से बंधी हुई |

आकृति अभी भी बोल रही है |

April 08, 2010

गुलमोहर

कल जब आप न होंगे ,
सूनी गलियों में हम
खड़े रहेंगे आहिस्ता सी शाम को देखते,
और फिर वो गुलमोहर नज़र आएगा
चिलचिलाती धूप में एक उम्मीद |

निकल पड़ेंगे मुस्कान लिए
एक उसी छाँव के सहारे |
कुछ वर्षों की यादें ,और उस फूल की लाली,
लेकर सहेज लेंगे |

खड़ा होगा वह
सुन्दरता की पराकाष्ठा पर |
और सीखना होगा उस से
की बीती हुई संध्या की लकीर
खूबसूरत बन जाती है |
वह
गुलमोहर |